जयपुर। ग़ौसे आज़म फाउंडेशन के चेयरमैन व चीफ़ क़ाज़ी, हज़रत मौलाना सूफ़ी सैफुल्लाह क़ादरी साहब ने कमर तोड़ महंगाई के मौजूदा दौर में, मस्जिदों के इमामों और मदरसों के उस्तादों की हालत पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि आज जब हर चीज़ की क़ीमत आसमान छू रही है, तब भी समाज में दो चीज़ें ऐसी हैं जिनकी क़ीमत आज तक नहीं बढ़ी, मस्जिदों के इमाम और मदरसे का उस्ताद।
उन्होंने कहा कि मौजूदा समय में हर विभाग का कर्मचारी अपनी ज़रूरतों को पूरा करवाने के लिए धरना देता है, हड़ताल करता है और प्रदर्शन करता है, लेकिन इमाम और उस्ताद ऐसा नहीं करते। न वे सड़क पर उतरते हैं और न ही दबाव की राजनीति करते हैं। यह उनकी मजबूरी नहीं, बल्कि उनका सब्र, ख़ुद्दारी और दीन की इज़्ज़त का एहसास है।
सूफ़ी सैफुल्लाह क़ादरी ने कहा कि इमाम सिर्फ़ नमाज़ पढ़ाने वाला नहीं, बल्कि समाज का नैतिक रहनुमा होता है, जो मस्जिद के मिंबर से अमन, इंसाफ़ और इंसानियत का पैग़ाम देता है। मदरसे का उस्ताद वह शख़्स है जो बच्चों को सिर्फ़ किताबें नहीं, बल्कि किरदार सिखाता है और आने वाली नस्लों की तर्बियत करता है। इस्लामी शिक्षाओं में आलिम की फ़ज़ीलत को बेहद ऊंचा दर्जा दिया गया है। क़ुरआन और हदीस में आलिमों की बहुत फ़ज़ीलत बयान की गई है।
उन्होंने कहा कि कुरआन की तालीम वही रोशनी है, जो समाज को नैतिक अंधेरे से बचाती है, लेकिन अफ़सोस कि उसी तालीम के ख़ादिम आज आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। सवाल यह है कि जो लोग सबसे ज़्यादा सब्र करने वाले हैं, क्या उन्हें ही सबसे ज़्यादा नज़रअंदाज़ किया जाता रहेगा?
सूफ़ी सैफुल्लाह क़ादरी साहब ने समाज के सक्षम और ज़िम्मेदार लोगों से अपील की कि वे इमामों और उस्तादों की ताज़ीम, देखभाल और उनकी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आगे आएं। साथ ही कहा कि यह कोई एहसान नहीं, बल्कि क़ौम की सामूहिक, नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी है।
अंत में उन्होंने कहा कि इतिहास गवाह है कि जिस समाज ने अपने आलिमों, इमामों और उस्तादों को मज़बूत किया, वही समाज इल्म, अख़लाक़ और इंसाफ़ में आगे बढ़ा और जिसने उन्हें नज़रअंदाज़ किया, वह अपनी पहचान खो बैठा।


